“I am proud of my country. But we need to unite to make a unified India, free of communalism and casteism. We need to build India into a land of equal opportunity for all. We can be a truly great nation if we set our sights high and deliver to the people the fruits of continued growth, prosperity and equal opportunity.”
— Ratan Tata —

All the great people have worked tirelessy to get freedom from the castes. Today we are in 21st centruy and full of technology, so we are also trying to reach in each & every corner of our country to convince/educate the people and upgrade their knowledge about abolishing the cast system of india.

Indian men who fought against casteism for women's rights

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मैं जाति नहीं मानता, कहने से जाति खत्म नहीं हो जाती
जाति मुक्त भारत यह एक उत्तम विचार है जो मनुष्य में आपसी भेद को जड़ से मिटाने की वकालत करता है। कुछ विशेष स्वार्थी लोगों ने मनुष्य के दिमाग में जातिय जहर घोलकर सरल समाज को जटिल बना कर दूषित कर दिया है। जाति व्यवस्था बनाने वाले उन षड्यंत्रकारियों को शायद यह नहीं पता होगा की आधुनिक काल में इसका जमकर विरोध होगा। मनुष्य अपनी मेहनत के बल पर, धन से, बल से, बुद्धि से तो बड़ा हो सकता है लेकिन जाति से बड़ा हो यह बेईमानी है। एक बुद्धिमान व्यक्ति की अगली संतान भी बुद्धिमान होगी यह कहना मुश्किल होगा, उसी तरह जन्म से जाति का होना उचित और न्यायसंगत नहीं है। हम और हमारे लोग प्रतिदिन लोगों से संपर्क करते हैं और समाज में फैली जातिय नफरत को समाप्त करने के लिए लोगों को समझाने की कोशिश करते हैं। मुझे उम्मीद है कि निकट भविष्य में जातियों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। मैं आशा करता हूं की इस जातिय कुचक्र को मिटाने के लिए निकट भविष्य में लोगों द्वारा जन आंदोलन होगा। किसी भी प्रकार की सरकारी दस्तावेजों में या कोई प्रमाण पत्र मैं जाति कॉलम ही न हो, इसके लिए निरंतर संघर्ष करेंगे। प्रति व्यक्ति आय को प्रमाणित करना व प्रति व्यक्ति आय के आधार पर जनगणना करके बराबरी का प्रतिनिधित्व करना सरकार का महत्वपूर्ण कार्य होना चाहिए। संवैधानिक कानून पारित हो कि कोई भी नेता जो चुनाव के लिए खड़ा होता है वोट बैंक बनाने के लिए जातियों का इस्तेमाल न करें। साथ ही साथ उसके अजंडा में जाति समाप्त करने का मुद्दा होना चाहिए। वरना वह नॉमिनेशन फॉर्म भी न भर सके। हम और हमारे साथी मिलकर लोगों को जागरूक करते रहेंगे और अपना जाति मुक्त भारत का परिवार विशाल बनाने में कड़ी से कड़ी मेहनत करते रहेंगे। स्वच्छ भारत जय जाति मुक्त भारत।

Caste is not a physical object like a wall of bricks or a line of barbed wire which prevents the Hindus from co-mingling and which has, therefore, to be pulled down. Caste is a notion; it is a state of the mind.
- B. R. Ambedkar


जाति व्यवस्था के खिलाफ विचार, योगदान और एवं समाज सुधार

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संत गाडगे महाराज की जीवनी, परिवार, कहानी और समाज सुधार के कार्य | Gadge Maharaj Biography, Family, Work for Indian Society and Story in Hindi गाडगे महाराज (Gadge Maharaj), जिन्हें लोकप्रिय रूप से संत गाडगे महाराज या गाडगे बाबा कहा जाता था. एक संत और समाज सुधारक थे. व्यापक रूप से महाराष्ट्र के सबसे बड़े समाज सुधारकों में से एक के रूप में माना जाता है, उन्होंने कई सुधार किए हैं. गाँवों का विकास और उनकी दृष्टि अभी भी देश भर के कई दान संगठनों, शासकों और राजनेताओं को प्रेरित करती है. उनके नाम पर कॉलेज और स्कूल सहित कई संस्थान शुरू किए गए हैं. उनके बाद भारत सरकार द्वारा स्वच्छता और पानी के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार की घोषणा की गई. उनके सम्मान में अमरावती विश्वविद्यालय का नाम भी रखा गया है. उनके सम्मान में महाराष्ट्र सरकार द्वारा ‘संत गाडगेबाबा ग्राम स्वछता अभियान’ शुरू किया गया था.

बिंदु (Points) जानकारी (Information) नाम (Name) संत गाडगे महाराज और गाडगे बाबा वास्तविक नाम (Real Name) देविदास डेबुजी जानोरकर पिता का नाम (Father Name) झिंगरजी जानोरकर माता का नाम (Mother Name) सखुबाई जन्म दिनांक (Birth Date) 23 फरवरी 1876 जन्म स्थान (Birth Place) शेंडगाव, महाराष्ट्र पेशा (Profession) आध्यात्मिक गुरु मृत्यु दिनांक (Death) 20 दिसम्बर 1956 मृत्यु स्थान (Death Place) अमरावती संत गाडगे महाराज की जीवनी (Gadge Maharaj Biography) उनका असली नाम देवीदास डेबुजी जानोरकर है. उनका जन्म महाराष्ट्र के अमरावती जिले के शेडगाँव गाँव में एक धोबी परिवार में हुआ था. वह अपने नाना के घर मुर्तीज़ापुर तालुक के दापुरी में पले-बढे थे. बचपन में उन्हें खेती और मवेशियों में दिलचस्पी थी. उन्होंने 1892 में शादी की और उनके तीन बच्चे थे. अपनी बेटी के नामकरण समारोह के दौरान, उन्होंने पारंपरिक शराब के बजाय मीठे के साथ शुद्ध शाकाहारी भोजन परोसा. उन्होंने 1 फरवरी 1905 को एक संत के रूप में अपने जीवन को आगे बढ़ाने के लिए अपने परिवार को छोड़ने से पहले अपने गाँव में एक स्वयंसेवक के रूप में काम किया.

वर्ण व्यवस्था व जाति व्यवस्था के खिलाफ कई आन्दोलन हुए हैं, जिनकी मुख्य धाराओं की हम यहाँ समीक्षा कर रहे हैं:

बौद्ध व जैनियों का संघर्ष

गौतम बुद्ध व महावीर के जमाने में मेहनतकश वैश्य व शूद्र वर्णों के लोग सामन्ती राजाओं से काफी परेशान थे. उन्हें भारी मात्रा में कर देना पड़ता था और शासक समूहों की प्रताड़नाओं का शिकार भी होना पड़ता था। इससे मुक्ति के लिए उन्होंने बौद्धों व जैनियों का सहारा लिया। चूँकि बौद्धों व जैनियों ने वर्ण व्यवस्था का विरोध किया और इस व्यवस्था से पीड़ित लोगों, यहाँ तक कि अछूत चांडालों के लिए भी अपने मठों व मन्दिरों के दरवाजे खोल दिये, इसलिए भारी तादाद में उक्त वर्णों के लोग बौद्ध व जैन धर्म को स्वीकार किये। लेकिन इन दोनों सम्प्रदाय के गुरुओं ने सामन्ती उत्पादन सम्बन्ध पर चोट नहीं किया, इसलिए वे वर्ण/जाति व्यवस्था विरोधी संघर्ष को आगे नहीं बढ़ा सके।

भक्ति आन्दोलन 12वीं सदी से 17वीं सदी तक

इस आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले अधिकांश सन्त चमार, लोहार, बढ़ई, जुलाहा व अन्य दस्तकार जाति से थे। उनमें से कुछ ब्राह्मण जाति से भी थे। इस आन्दोलन की एक रेडिकल धारा भी थी जिसका प्रतिनिधित्व बासवन्ना, तुकाराम, नामदेव, कबीर व गुरुनानक जैसे सन्त करते थे। उन्होंने खुलेआम ब्राह्मणवादी पाखंड व जातीय भेदभाव का विरोध किया। खासकर गुरुनानक व कबीर ने तो हिन्दूवाद पर गहरा चोट किया। भक्ति आन्दोलन की इस धारा ने सामन्तवाद के वैचारिक व भौतिक आधार को जबरदस्त चुनौती दी। लेकिन इस आन्दोलन के अन्तिम दौर में रामदास व तुलसीदास जैसे दकियानुसी सन्त भी आये जिन्होंने वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मणवाद को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया।

यह आन्दोलन भी इसलिए असफल हो गया, क्योंकि इसने जाति व्यवस्था का आधार, सामन्ती उत्पादन प्रणाली पर और उसके भू-सम्बन्धों पर चोट नहीं किया।

ब्राह्मण-वर्चस्व विरोधी आन्दोलन

इस आन्दोलन की शुरुआत 20वीं सदी के शुरू के वर्षों में हुई, जिसमें ब्राह्मणों के सामन्ती वर्चस्व व शोषण के खिलाफ मध्य जाति के शूद्रों व अछूतों को गोलबन्द किया गया। इसका एक हिस्सा केवल शिक्षा व सरकारी नौकरियों में ब्राह्मणों के एकाधिकार के खिलाफ संघर्ष किया, जबकि दूसरे रेडिकल हिस्से ने पूरी जाति व्यवस्था व ब्राह्मणवाद को चुनौती दी। साथ ही, उन्होंने किसानों व मध्य वर्गों की समस्याओं को भी उठाया। इसलिए इस हिस्से को शोषित-पीड़ित जनता का व्यापक समर्थन मिला। उनके संघर्ष से साम्राज्यवाद विरोधी लड़ाई में व्यापक जनता की गोलबन्दी को बढ़ावा मिला। आगे चलकर इस आन्दोलन में शामिल गैर-ब्राह्मण जातियों के आगे बढ़े हुए तबकों ने चुनावी राजनीति में भाग लेकर कई राज्यों में राजनैतिक सत्ता पर कब्जा भी किया। इस प्रकार वे दलितों व गरीबों के नये शोषक समूह बन गये।

महाराष्टं में मराठा,आन्ध्र प्रदेश में रेड्डी व कम्मा, कर्नाटक में वोकालिंगा व लिंगायत, गुजरात में पटेल,बिहार में यादव व कुर्मी व हरियाणा में जाट जातियों के प्रतिनिधियों का सत्तासीन होना इसके उदाहरण हैं।

ज्योतिबा फूले व पेरियार का आन्दोलन

ब्राह्मण वर्चस्व विरोधी आन्दोलन में ज्योतिबा फूले व पेरियार का नाम काफी गर्व के साथ लिया जाता है। ज्योतिबा फूले ने 1853 में सत्य शोधक समाज का गठन कर मुख्यतः ब्राह्मणवादी हिन्दू पुनरुत्थानवाद के खिलाफ संघर्ष किया। लेकिन इस आन्दोलन ने शुरू से ही जनवादी रवैया अपनाया और साथ ही साथ, जातीय शोषण, विधवा विवाह, शराबखोरी, नौकरशाही का दमन, महाजनों की लूट, किसानों की भूमि से बेदखली, भारतीय सम्पदा की साम्राज्यवादियों द्वारा की जा रही लूट जैसे मामलों को भी उठाया। इस तरह फूले ने देशी सामन्ती प्रतिक्रियावादी आधार व इसके उपरी ढाँचा के साथ-साथ ब्रिटिश शासन पर ही हमला किया। लेकिन इसके पहले कि उनका संघर्ष बुनियादी भूमि सम्बन्धों को चुनौती देता,उनकी मौत हो गयी। उनकी मृत्यु के बाद आन्दोलन का नेतृत्व कोल्हापुर के सामन्ती महाराजा के हाथों में आ गया और इसका जनवादी सर्वव्यापी चरित्र कायम नहीं रह सका। आगे चलकर इस आन्दोलन का मूल चरित्र ही बदल गया और अब इसका लक्ष्य ब्राह्मणों की जगह क्षत्रियों/मराठों को बेहतर स्थान दिलाने तक सीमित हो गया। इस निहित स्वार्थ की प्राप्ति के लिए इसके नेताओं ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद से समझौता तक किया। इ.वी. रामास्वामी, जिन्हें पेरियार के नाम से जाना जाता है, शुरू में कांग्रेस पार्टी के साथ जुड़े थे। लेकिन कांग्रेसी नेताओं के जातिवादी पूर्वाग्रहों से उन्हें काफी घृणा हुई और उससे बाहर आकर उन्हांने 1925 में ‘आत्म-सम्मान आन्दोलन’ की शुरुआत की। इसके पूर्व तमिलनाडु में ‘जस्टिस पार्टी’ बन चुकी थी और 1920 के मद्रास प्रेसीडेंसी चुनाव में उसे बहुमत भी प्राप्त हो चुका था। पेरियार आमतौर पर जस्टिस पार्टी के मंच का इस्तेमाल किया करते थे, लेकिन इस पार्टी की प्रान्तीय सरकार बनने के बाद उनके रुख में परिवर्तन आया। उन्होंने इस सरकार की जन विरोधी व दलित विरोधी कार्रवाइयों की तीखी आलोचना की। नतीजतन उन्हें ब्रिटिश सरकार के दमन का शिकार बनना पड़ा। उन्होंने 1942 में द्रविड़ कड़गम पार्टी का गठन किया जो आगे चलकर डी.के. और डी.एम.के. में विभाजित हो गयी। उन्होंने 15 अगस्त 1947 को ‘शोक दिवस’ के रूप में मनाने का आह्वान किया और ‘आजाद भारत’ के कांग्रेसी राज को ‘ब्राह्मण राज’ की संज्ञा दी। आगे उन्होंने डी.एम.के. का समर्थन किया। इसी डी.एम.के. के शासन के दौरान तंजावूर के जालिम जमीन्दारों के गुंडों ने दलितों की झोपड़ियों में आग लगाकर 70 से ज्यादा औरतों व बच्चों को जिन्दा जला दिया। जिन हत्यारों पर इस जघन्य जनसंहार का अभियोग लगाया गया, उन्हें कोर्ट द्वारा बरी भी कर दिया गया। इस तरह पेरियार द्वारा शुरू किये गये जाति विरोधी आन्दोलन की एक दुखद परिणति हुई। हालाँकि इस आन्दोलन ने देश के स्तर पर जाति विरोधी भावना पैदा करने में एक अहम् भूमिका अदा की।

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Guru Ghasidas was born on 18 December 1756 and died at the age of eighty in 1836. He was born in village Girodhpuri 130 kms from Raipur of Chhattisgarh in an untouchable family. Ghasidas was born in a socio-political milieu of misrule, loot and plunder. The Marath the local had started behaving as Kings. Ghasidas underwent the exploitative bitter experiences specific to untouchable communities in the hindu caste-ridden society. From an early age, he started rejecting social inequity and to understand the problems faced by his community and to find solutions, he traveled extensively in that part of India which presently Chhattisgarh state of India.

He advocated equal rights for all the untouchable communities. Ghasidas was unlettered like his fellow untouchables. He deeply resented the harsh treatment to his brotherhood, and continued searching for solutions but was unable to find the right answer. In search of the right path he decided to go to Jaganath Puri and on his way at Sarangarh (presently in Chhattisgarh) he attained true knowledge.

It is said that he announced Satnam and returned to Giordh.On his return, he stopped working as a farm worker and became engrossed in meditation. After spending six months in Sonakhan forests doing meditation, Ghasidas returned and formulated path-breading principles of a new egalitarian social order.

The Satnam Panth (sect) is said to be based on these principles formulated by Ghasidas. They were honest, industrious and have formed a brotherhood calling themselves Satnamis. Satnam means good name by good work Guru Ghasidas through Satnamin principles initiated a socio-religious order, which rejected the premier position of Brahmins and completely demolished the exploitative and hierarchical caste system.

This new order was a challenge to the brahminical social order and it treated all human beings as socially equal. According to Satnam Panth, truth is God and there is only one God, which is Nirgun (formless) and Anant (infinite). Ghasidas realised the link between dominance of Brahmins and idol worship and therefore Satnam rejects any form of idol worship. Interestingly, Ghasidas had a holistic vision and felt that systemic reforms to remove social injustice and inequality would remain inadequate and incomplete without reforming the individuals.

This underlying principle led to prohibition of liquor for the followers of Satnam Panth. Guru Ghasidas also formulated some principles, which clearly reflect his love for animals and his desire to put an end to cruelty towards animals. It is against the principles of Satnam to use cows for agriculture, to plough the fields after midday and consume non-vegetarian food. Several myths have been built around the legend of Guru Ghasidas in Chhattisgarh. These myths and beliefs attribute supernatural powers to him and stories like his ability to revive the dead, as he did with his wife and son after their death, are widely heard. However the key point is that Guru Ghasidas has been accepted as a visionary social reformer and the high number of Satnam followers is a testimony to this fact. According to the 1901 census there were around 4,00,000 people adhering to the principles of Satnam Panth. The first martyr from Chhattisgarh in the Indian war of Independence of 1857. Veer Narayan Singh, was also deeply influenced by the teachings of Guru Ghasidas. The satnami tradition also lives on in the form of a vast collection of panthi songs, commonly sung by groups during street procession. Many panthi songs vividly described Guru Ghasidas’ life. Guru Ghasidas University is a Central University in Bilaspur district of Chhattisgarh that was inaugurated on 16 June 1983.  A reserve forest named as ‘Sanjay Reserve’ was in undivided Madhya Pradesh. After Madhya Pradesh was divided in 2000, a large part of the then Sanjay National Park went to Chhattisgarh. Chhattisgarh government renamed this forest area, with an area of 1440 km2 falling under its jurisdiction, as Guru Ghasidas National Park in Koirya and Surguja districts.

Positive thoughts on casteism in india


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